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हर मोड़ पर तुम मिले

मैं निकली थी अपनी गलियों में,
मुझे हर मोड़ पर तुम मिले
घर से निकल के, गली के कोने में,
मुलाक़ात हुई मेरी, उस शाम से
जब मुझे लेने तुम आया करते थे

थोड़ा आगे जा कर, रुक गए थे कदम
सड़क के उस पार, जहाँ वो पानीपुरी खायीं थी
चलते चलते, मुस्कुरा दी यूँ ही,
जहाँ भीगे थे, बारिश में कभी
दौड़ पड़ी थी नज़रें उस चौराहे पर
जहाँ अक्सर, तुम्हारा इंतज़ार करती थी मैं
वो सड़कें, तुम्हारा हाल पूछ रहीं थी मुझसे
बताया मैंने उन्हें, खैरियत में हो तुम

पानी की लहरें, कुछ ठहर सी गयी
देख के मुझे अकेला,
वो सीढियां, निढाल पड़ी थी
कुछ चहक गयी मुझे देख
खामोश खड़े पेड़,
लगा कुछ बोल रहे हैं, मुझसे
बात करनी चाही मैंने, पर
गला भर आया था,
शायद, मेरी ख़मोशी पढ़ ली थी

ठंडी बहती हवा में,
महक तम्हारी, महसूस की थी मैंने
रात भी आई मुझसे मिलने
ज़िक्र तुम्हारा लेकर,
और वो चाँद,
जैसे मुस्कुरा रहा था, मुझे अकेला देख

चाय भी ठंडी हो गयी थी,
इंतज़ार करते करते तुम्हारा,
और, लौट आयी मैं,
तुम्हारी खुशबू यादों की, अपने संग लिए

– आकांक्षा ठाकुर