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शहर

प्रतिदिन की तरह आज महिला डिब्बे में न जाकर मैं सामान्य डिब्बे में ही चढ़ गई क्यूंकि प्लेटफॉर्म की सीढ़ियां चढ़ते-चढ़ते ही मेट्रो ट्रेन सामने आकर खड़ी हो गई थी। दरवाज़े बायीं ओर खुले और बन्द हो गए। डिब्बे के अंदर आते ही दोनों आँखों में पानी आ गया और आज तो ये पानी बिना किसी लिहाज के गालों तक पहुँच गया था। इस शहर में आने के बाद अक़्सर मैंने इन्हें अपने चश्मे के नीचे ही छिपा रहने दिया था। अंदर एक छोटी सी 5-6 साल की बच्ची चिल्लाकर पापा-पापा कह रही थी और उसके पापा उससे प्यार से बातें किये जा रहे थे। वे गाड़ी की गति बढ़ने पर कभी उसे संभालते, कभी उसे किसी के पास जाने से रोकते और कभी आँखों से इशारे में, कुछ ना करने की हिदायत देते | कुछ देर बाद वे उसका हाथ पकड़ खड़े हो गए, शायद जहाँ उन्हें उतरना है, वो स्टेशन आने वाला था।

आंसुओं के साथ अपनी धुंधली नज़रों से मैं लगातार ये सब देखे जा रही थी। आख़िर में मैं बस उस प्यारी बच्ची को देखती रह गई। उसकी आँखों में पापा का हाथ थामे रखने का ग़ुरूर साफ़ नज़र आ रहा था, वो बार-बार मुझे देखती फिर अपने पापा को देखने लगती। उसे कोई चिंता, कोई परेशानी नहीं थी। न ही अकेले हो जाने का कोई डर। बचपन की यादें किसी तेज रफ़्तार, सुपरफास्ट ट्रेन की तरह चंद सेकण्ड्स में मेरी आँखों के सामने से होकर गुज़र गयी। पहली बार इस दूजे शहर में अकेले होने का ग़म हुआ था। लगा कि काश उस सी प्यारी बच्ची की तरह मैं भी मेरे पापा का हाथ थामे बस उनके पीछे चलती जाऊं। कब ट्रेन पापा-बेटी के मेट्रो से आगे बढ़ गयी और कब मेरे स्टेशन का नाम पुकारा जाने लगा, मालूम ही नहीं चला।

इतनी भीड़ में अचानक मैंने ख़ुद को संभाला। दरवाज़े फिर बायीं तरफ खुले और मैं अपने ठंडे हाथ से गालों के गर्म आंसू पोंछ कर बिना किसी की तरफ देखे दरवाज़े से बाहर आ गई।

-अनुजा श्रीवास्तव