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वह महिला

सहसा ही नजर पड़ी
पत्थर तोड़ती एक महिला पर
फ़टे वस्त्र , सिकुड़ता देह
विचलित मन
थकी थकी सी आंखे
मानो तक रही हो राह
कि आए और उनको ले जाए
शायद उसका बेटा
हो ना हो वही होगा
जिसका उसे इंतज़ार हो
लाचार , कमजोर हाथों से
लग गयी फिर से
पत्थर तोड़ने में
मसोसकर अपने सपनों को
जो शायद देखे होंगे
उसने किसी रोज़ किसी पल
अपने लिए, अपनों के लिए
आज मजबूर है मगर
वो मजदूरी करने के लिए
सहसा ही नजर पड़ी दूर
पत्थर तोड़ती उस महिला पर
हटी ही नहीं नजरें
यह सोचकर कि ऐसा भी होता है
सपने भी मरते है
अपने भी धोखा देते हैं
उफ्फ! दुःखी हूँ
बैचैन हूँ
सोचता हूँ अब नजर नहीं पड़नी थी
क्या कभी नहीं पड़ी
नजर इन पर
हमारे सत्ताधीश की
जो हाँकते है अपने किये छोटे
तुच्छ से कामों की डींगें ।
थोड़ी सी तसल्ली है मुझे
सोचकर उसके लिए
मेहनत करती महिला के लिए
नहीं पसारती हाथ
यूँ गैरो के समक्ष ।
कमाने की कला खूब जानती है
आँसू छिपाकर अपने
हँसना मुस्कुराना
खूब जानती है.

-डिप्टी सोनी