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मुक्तक

खनक के शोर में खुद का कभी सानी नहीं बेचा
सुरों की चाशनी में लफ्ज़ का मानी नहीं बेचा
कठिन इस दौर में जब गर्व का कारण ही बिकना हो
वहां हमने अभी तक आँख का पानी नहीं बेचा

– राम लखारा ‘विपुल’