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भ्रम

ये कौन पीछा कर रहा है मेरा?
दूर दूर तक कोई अपना नहीं
दालान और कमरों में
कुछ तहज़ीब के पन्ने हैं
कहते हैं, भ्रम है ये
मान लो
शायद सच ही कहते होंगे
उन्हें तज़ुर्बा है, इतिहास का
वो ज़मी, वो ईंट
वो दीवारों की सीलन
देखी है क्या?
और फिर उसपे हरा-हरा सा!
जानते हो क्या है वो..?

हँस लूं मैं भी?
अरे और तो कुछ नही काई कहते हैं उसे
एक सब्ज़ भ्रम
जिसमें एक मौत छिपी है
मुन्तज़िर मौत
मौके की तलबगार
अपनी सब्ज़ आँखों मे भूख लिए
कहा था तुमसे, मत जाओ वहाँ
हर सब्ज़ चीज़ ज़िंदगी नहीं होती
पर सुनना तो कबका छोड़ दिया तुमने
और मैं जब भी देखता हूँ तुम्हें
सच बड़ा दर्द होता है

कितनी भोली हो तुम
कितनी प्यारी हो तुम
पर अपनी मौत को तय करती
तुम्हारी आँखे ख़ूबसूरत
हो सकती है
पर ज़िंदगी का
सब्ज़ रंग उनपे नहीं फबता
क्योंकि सब्ज़ रंग मुहब्बत् में
बुरी तरह बस सब्ज़ होता है
फिसलने तलक
उसके नीचे स्याह रंग
और सर्द ज़मी
कहते हैं कब्र भी सर्द होती है..

– सुनंदा जैन ‘अना’