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बाबा और बूंद

बारिश की बूंद घर के ओढले पर रुकी हुई ,
मैं अजनबी सा उसे एकटक देखता रहा .
बूंद नई आशा के साथ दस्तक देती आई ,
मैंने बूंद से कहा अब वो नहीं है .
जो तुम्हे हथेली पर ले आँगन में खेलती थी ,
जो तुम में भीगकर अपनी ख़ुशी बांटती थी .
अब मैं हूँ उस “बच्ची” की राह तकता ,
जो है सुदूर गाँव, अपने ससुराल में

वो जब तोतली में कहती थी ,
बाबा तागज की नाव बना दो .
सारे काम उसकी इस छोटी सी ,
ख्वाहिश पर छोड़ देता .
आज भी कई कोरे कागज है पर वो नहीं ,

बूंद समझाती है ये दुनिया की रीत है बाबा .
मैं भी अपने बाबा (बादल) को छोड़ आई हूँ ,
नव जीवन का सर्जन करना है .
मेरी आस में बैठा किसान है ,
धरती पर चर-अचर प्राणी प्यासे हैं.

दिल को तसल्ली दे ,
बूंद को आँखों और हथेली पर ले .
मैं भी कागज की नाव बनाने लगा ,
बूंदों से भरी क्यारी में नाव बहाने लगा .
मेरी बच्ची ……..
तेरे तागज की नाव और आँगन इंतजार में है .
मेरी बच्ची ……..
तेरे बाबा और बूंद आज भी इंतजार में है |

– सचिन बिल्लोरे ‘आस’