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दस का नोट

दाखिले के फॉर्म में जेंडर के दो ही कॉलम दिखे मुझे,
पढ़ने को बाहरगांव में रहने को हॉस्टल तक नहीं मिला था
सिनेमा हॉल के बाहर का वॉशरूम भी जगह नहीं दे पाया था
लेकिन मैं फिर भी तैयार थी सबके साथ आगे बढ़ने को, या शायद था?

यहीं तो चूक हुई,

ट्रेनों पर मुफ़्त की सवारी का हक़ दे दिया तुम लोगों ने
लेकिन अपनी ज़िन्दगी में आने जाने का हक़ नहीं दे पाये।

अब पेट पालने को मांग भी लेते हैं दो चार रूपये
तो खरी खोटी सुना देते हो तुम।
वरना दिल हमारा भी बच्चा ही है।
काम करना चाहते हैं।
नहीं चाहिए मुफ़्त की सवारी।
नहीं तोड़नी है मुफ़्त की रोटियां।

लेकिन क्या कर पाओगे,अपने बच्चों को हमारे हवाले?
बनाओगे अपने लाल की आया?
क्या पियोगे मेरे हाथ से उबला दूध,
खाओगे मेरे हाथों से गूंदे आटे की रोटी?
बनाओगे अपने घर में कामवाली बाई?

बताओ दोगे हमें महीने के 20 हज़ार?
रखोगे अपने दफ़्तर की नौकरी पर?

कहो तैयार हो मेरे नाम के साइन किये हुए चेक लेने को?
सह पाओगे मेरा बॉस बन जाना?

अग़र हाँ तो फ़िर मत देना वो दस का नोट अगली दफ़ा….

– अंकिता दास