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तुम्हे इस से क्या?

हाँ मैं अपने खुद के बादल बनाता हूँ
मैं शौक़ से सीने में आग सुलगाता हूँ
तुम्हें इससे क्या ?

मैं झूठ मुठ का मुस्कुराता हूँ,
ख़ाली हसीं किस्से बनाता हूँ,
तुम्हे इससे क्या?

किसी और की सुनने का होश नहीं मुझे
मैं अपनी ही अना में डूबता जाता हूँ
तुम्हे इस से क्या?

मैं जितने चाहें ख़्वाब बनाऊंगा,
मैं सूरज नहीं जुगनुओं को ख़ुदा बताऊंगा,
तुम्हें इस से क्या?

मैं जब चाहे मदहोश रहूं,
जब चाहे होश में आऊंगा,
तुम्हे इस से क्या?

– सौरभ कुमार