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चिर-इंतज़ार

प्रतिदिन सुबह आर ब्लॉक के निकट देवी-मंदिर में पूजा करने जाते हुए मैं उस वृद्धा को मंदिर के बाजू के मकान के गेट पर बैठे देखा करती थी।
सुबह-सवेरे वो तैयार होकर बैठी दिखती थी जैसे उसे किसी के आने का इंतज़ार हो।
उस वृद्धा की उम्र से यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं था की वो कहीं कार्यरत नहीं थी। फिर ठण्ड के इस मौसम में भी प्रतिदिन सवेरे तैयार होकर गेट पर बैठ कर किसी का इंतज़ार करना मेरी समझ से परे था। आखिर मुझसे जज़्ब नहीं हुआ और एक दिन मैंने उनसे पूछ ही लिया- “माँजी, मैं रोज़ सवेरे आपको यहां बैठे देखती हूँ? आप इस उम्र में भी कहीं काम करती हैं?”
उस वृद्धा ने बिना मुझे देखे, अपनी नज़रें सड़क पर जमाये, सपाट शब्दों में बताया कि वो कहीं काम नहीं करती।
“फिर इतनी सुबह आप तैयार होकर किसका इंतज़ार करती हैं?”
उस वृद्धा ने पहली बार सामने सड़क पर से अपनी दृष्टि हटाई। मेरी ओर एक गहरी दृष्टि डाली और सिर्फ इतना ही कहा “मैं अपने बेटे का इंतज़ार कर रही हूँ। कुछ दिन हुए वो मुझे यहाँ बिठा कर यह कह गया है कि वो बस आधे घंटे में वापस आने वाला है मैं उसके वापस आने का इंतज़ार कर रही हूँ।
“उस वृद्धा की आँखों में बेटे के प्रति ममता की गहराई महसूस कर मैं स्तब्ध रह गयी किन्तु उनकी बातें सुन मेरा ह्रदय कट कर रह गया।
बेटे के चिर-इंतज़ार में बैठी उस वृद्धा को शायद यह मालूम तक नहीं था कि उसका बेटा उसे जहां इंतज़ार करने को कह कर गया है वो दरअसल एक वृद्धाश्रम था।

-राजेश सहाय