You are currently viewing कीकर

कीकर

आजकल अक्सर होता है,
मैं बैठ जाता हूँ।
मैं बैठ जाता हूँ टिकाकर,
सर अपना दीवार से।

दीवार पर सर ठोक कर के,
याद करता हूँ,
उन गुलों को जिनसे शामें,
गुलज़ार थी मेरी।

दस बारी सर को ठोका,
करता हूँ क्योंकि,
याद आते हैं वो पाँच से,
पाँच से लौट जाते हैं।

यूँ भी होता है कभी,
चलते हुए अक्सर।
नोज़ाइदा गुलफ़ाम कोई,
दिल को भा जाता है।

मलाल होता है कभी,
लानत भी आती है।
एक शख़्स और चाहत इतनी?
क्या बे-हुदगी है…..

सफाई देने की कभी,
चाहत नही होती।
लेकिन मगर इंसानी-फ़ितरत,
जवाब देती है।

फ़र्ज़ कीजिये,
एक जंगल कीकर का,
जिसमें लाखों कीकर हैं।
फ़र्ज़ कीजिये कई अब्र रोज़ ही,
उसके ऊपर से गुज़रते हैं।

सब कीकर उनको देखते हैं,
हसरत से, के बरसेंगे।
अब्र भी सोचा करते हैं,
किसपर बरसें?, किसपर नही?

अब्र बरसते हैं जंगल पर,
सब पेड़ भीग भी जाते हैं।
एक अकेले कीकर लेकिन,
नहीं भीगता हैरत है!

वाहिद वो कीकर बेचारा,
अर्श ताका करता है।
इस उम्मीद में के कोई बादल,
उसपर बारिश बरसाएगा।।

– प्रद्युम्न चौरे