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इन दिनों

तुम लौटते हो
बदल जाता है कमरे का रंग
दीवार पर अटके फ़्रेम में
तुम्हारी न दिखती तस्वीर भी
जाने कैसे निखर सी जाती है किसी की नज़रों में

नहीं आती तुम्हारे कमरे से कोई आहट
और दस्तक की गुंजाइश तुम रखते नहीं
बाक़ियों के दरवाज़े पे मगर
तरतीब से ख़त पहुँचने लगते हैं
रौशन हो जाती है पिछली गली वाली इक खिड़की
जो आजकल सबसे ख़फ़ा रहने वाली लड़की के कमरे में खुलती है

तुम गुज़रते हो उधर से भी
कई बार तेज़ क़दमों से
या कई बार बे’आवाज़
और दरवाज़े के निचले दराज़ पर
हवा हो गया तुम्हारा साया लहरा जाता है

मालूम होना चाहिये तुम्हें कि
तुम्हारे मौजूद होने और न होने से परे
तुम्हारी मौजूदगी का भरम भर
इन दिनों गुज़रने वाला सबसे हसीन वाक़या है!

-क़ायनात शाहिदा