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आम कवि

मैं अत्यंत आम इंसान हूँ,
कवि के भेष में।
रक्त नहीं,
जैसे नफ़ा-नुकसान दौड़ता है
रगों में।
मैं कविताएँ भी लिखता हूँ,
काॅपी के पिछले पन्नों पे।
महंगे कलम,सुंदर आवरण वाली डायरी
सहेजता हू़ँ।
क्योंकि ये भी लगते हैं,
मुझे वाहन विलासिता के।
मैं दो पैसे के पन्ने का मोल
सोचता हू़ँ,
वैरागी कविताओं की आड़ में।
शायद, मैं अत्यंत आप कवि हूँ,
‘विशिष्ट’ के भेष में।

तृषा